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उषा प्रियंवदा

गजाधर बाबू ने कमरे में जमा सामान पर एक नज़र दौड़ाई -- दो बक्से, डोलची, बालटी -- ''यह डिब्बा कैसा है, गनेशी?'' उन्होंने पूछा। गनेशी बिस्तर बाँधता हुआ, कुछ गर्व, कुछ दु:ख, कुछ लज्जा से बोला, ''घरवाली ने साथ को कुछ बेसन के लड्डू रख दिए हैं। कहा, बाबूजी को पसन्द थे, अब कहाँ हम गरीब लोग आपकी कुछ खातिर कर पाएँगे।'' घर जाने की खुशी में भी गजाधर बाबू ने एक विषाद का अनुभव किया जैसे एक परिचित, स्नेह, आदरमय, सहज संसार से उनका नाता टूट रहा था।
''कभी-कभी हम लोगों की भी खबर लेते रहिएगा।'' गनेशी बिस्तर में रस्सी बाँधते हुआ बोला।
''कभी कुछ ज़रूरत हो तो लिखना गनेशी! इस अगहन तक बिटिया की शादी कर दो।''
गनेशी ने अंगोछे के छोर से आँखे पोछी, ''अब आप लोग सहारा न देंगे तो कौन देगा! आप यहाँ रहते तो शादी में कुछ हौसला रहता।''
गजाधर बाबू चलने को तैयार बैठे थे। रेल्वे क्वार्टर का वह कमरा, जिसमें उन्होंने कितने वर्ष बिताए थे, उनका सामान हट जाने से कुरूप और नग्न लग रहा था। आँगन में रोपे पौधे भी जान पहचान के लोग ले गए थे और जगह-जगह मिट्टी बिखरी हुई थी। पर पत्नी, बाल-बच्चों के साथ रहने की कल्पना में यह बिछोह एक दुर्बल लहर की तरह उठ कर विलीन हो गया। Listen Audio Playback click here or

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Saturday 3 August 2013

भूमंडलीकरण के एजेन्डे में वैश्विक अर्थव्यवस्था और वैश्विक संस्कृति दोनों ही शामिल हैं।

उर्मिला शुक्ल
July  2013

भूमंडलीकरण के इस दौर में अनुवाद की भूमिका और भाषिक-अस्मिता का सवाल

भूमंडलीकरण के एजेन्डे में वैश्विक अर्थव्यवस्था और वैश्विक संस्कृति दोनों ही शामिल हैं। यह अवधारणा है, जिसके तहत विश्व के सभी देशों की अर्थव्यवस्था को जोड़कर एक ऐसी वैश्विक अर्थव्यवस्था बनाने की योजना है जो उदार है। साथ ही साथ विश्व की विभिन्न संस्कृतियों को एकरूपता में ढालकर एक वैश्विक संस्कृति निर्मित करना भी इस एजेन्डे में शामिल हैं।
अब सवाल यह उठता है कि क्या सचमुच अमेरिका जैसा पूंजीवादी देश एक वैश्विक संस्कृति के निर्माण में सभी संस्कृतियों की विशेषताओं को शामिल कर एक नयी वैश्विक संस्कृति बनायेगा, जो सर्व समावेशी संस्कृति कहलायेगी। ऐसा होता है तो किसी को भी इससे ऐतराज नहीं होगा। मगर पूरी दुनिया में से किसी एक संस्कृति को वैश्विक संस्कृति बनाने की अगर कोशिश हो, तो यह चिन्ता का विषय है। क्योंकि भूमंडलीकरण की अवधारणा एक प्रतियोगी समाज बनाने की है, जिसमें जो अधिक प्रभावशाली होगा वर्चस्व भी उसी का होगा। जिस तरह आर्थिक रूप से सम्पन्न व्यक्ति आज के समाज में प्रमुखता पा लेता है। उसी तरह वैश्विक अर्थव्यवस्था में वह देश भी प्रमुखता पाता है, जो सर्वाधिक विकसित होता है। यही स्थिति संस्कृतियों के साथ भी है। इसमें वर्चस्व उसी को प्राप्त होता है, जो सर्वाधिक समृध्द होती है। इसीलिए बौडिला ने भूमंडलीकरण को हमारे समय की सबसे बड़ी बर्बर हिंसा कहा था। भूमंडलीकरण के प्रसिध्द आलोचक नोम चोमस्की भी भूमंडलीकरण के पीछे अमेरिका की कुटिल चालों के कारण ही उसकी आलोचना करते हैं। क्योंकि एक वैश्विक आर्थिक नीति और एक वैश्विक संस्कृति की इस अवधारणा में महत्व तो अमेरिका जैसे विकसित देश को ही मिलेगा।
चिंताजनक बात तो यह है कि इसे इतने सुनियोजित ढंग से प्रचारित किया जा रहा है कि इस व्यवस्था का कोई विकल्प ही नहीं है। अर्थात् सभी देशों को उसी व्यवस्था को अपनाना होगा, जिसे आज के वर्चस्वशाली देशों ने निर्मित किया है। अर्थात् हमें और शेष विश्व को उस भाषा, उस जीवन शैली और मूल्यों को आत्मसात करना होगा, जो तथाकथिक सर्वाधिक समृध्द संस्कृति निर्मित करेंगी। इस नीति को लागू करने के प्रयास जारी हैं। इसका पहला कदम है कि ऐसे हालात पैदा कर दिए जायें, जिससे लोगों को अपनी भाषा अपनी संस्कृति और अपने मूल्यों की रक्षा में असुविधा महसूस हो और वे उस वर्चस्वशाली संस्कृति को स्वीकार लें। और इसके लिये कोशिश यह हो रही है कि कृषि प्रधान संस्कृति को समाप्त कर दिया जाये।
हमारी कृषि का संबंध गाँव से है और गाँव हमारे संस्कृति के केन्द्र हैं, उसके वाहक हैं। इसलिए अगर गाँव नहीं रहेंगे, तो हमारी संस्कृति और उसके मूल्य स्वत: क्षीण होते चले जायेंगे। इसीलिए गाँवों को उजाड़कर बड़े-बड़े उद्योग लगाने की कोशिश हो रही है। कृषि को निरन्तर घाटे की ओर धकेला जा रहा है। गाँव उजड़ेंगे तभी तो शहर बसेंगे। और यह हो रहा है। तभी तो किसान खेती से विमुख हो रहा है। आत्महत्या कर रहा हैऔर पूँजीपति नित नये उद्योग लगा रहे हैं और हमारी सरकारें भी इसमें सहयोग कर दे रही हैं। आज हर सरकार का प्रमुख एजेन्डा है कि उसके यहाँ अधिक से अधिक उद्योग लगाये जायें। परिणामत: गाँव से शहरों की ओर पलायन लगातार जारी है, शहरों का फैलाव बढ़ रहा है और नई-नई कॉलोनियां बस रही हैं और इसके लिए भी कृषि भूमि का ही अधिग्रहण किया जा रहा है। गांव उजड़ रहे हैं। लोग या तो पलायन करने को मजबूर हैं या फिर विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। दोनों ही स्थितियों में लोग अपनी संस्कृति, अपने मूल्यों और अपनी जीवन शैली वैश्विक परिदृश्य के वर्चस्व वाली संस्कृति में ढाल रहे हैं, जो वैश्विक संस्कृति बनने की दिशा में अग्रसर है। सांस्कृतिक साम्रायवाद इसी तरह फैलेगा। और इसी सांस्कृतिक साम्रायवाद के चलते हमारी भाषाओं, बोलियों का लोक विलोपीकरण हो रहा है। यह सांस्कृतिक साम्रायवाद की दिशा में पहला कदम है।
हमारे यहां तो भाषिक विविधता इतनी है कि हर बारह कोस पर बानी अर्थात् बोली बदल जाती है और बोलियाँ ही विकसित होकर भाषा का रूप लेती हैं और भाषा, राज भाषा और फिर राज भाषाओं में बहुसंख्यक की भाषा राष्ट्रभाषा बनायी जाती है मगर राज और राष्ट्र भाषाओं को अपदस्थ कर, एक वैश्विक भाषा को सांस्कृतिक एकीकरण के नाम पर आरोपित करने का प्रयास किया जा रहा है। परिणामस्वरूप हर देश में उसकी राष्ट्रभाषा को पीछे ठेलकर अंग्रेजी को ही विश्व के ज्ञान विज्ञान का द्वार घोषित किया जा रहा है। यूं तो अंग्रेजी इंगलैंड की भाषा है, मगर अमेरिका ने उसे कुछ संशोधन के साथ स्वीकार कर लिया है और आज वही अमेरिकन अंग्रेजी विश्व पर छा जाने को तैयार है। अब अंग्रेजी उन भाषाओं को भी लीलने को तत्पर है, जो कभी विश्व में बहुत लोकप्रिय थीं। उदाहरण स्वरू प रशियन और फ्रेंच को देखा जा सकता है।
इस तरह विश्व की प्राचीन संस्कृतियां अपना महत्व खो देंगी। क्योंकि भाषा संस्कृति की वाहक होती है। भाषा समाप्त हो जायेगी तो संस्कृति अपने आप समाप्त हो जायेगी। क्योंकि जो भाषा प्रभावशाली होगी, उसकी संस्कृति अपने आप प्रभावशाली हो जायेगी, यानि पहले राजनीतिक साम्रायवाद आया था, जिसने हमें गुलाम बनाया। अब सांस्कृतिक साम्रायवाद आयेगा, जो हमसे हमारी भाषा, हमारी संस्कृति छीन लेगा और हमें यह महसूस भी नहीं होगा कि हमसे कुछ छीना जा रहा है, क्योंकि हम उस वैश्विक भाषा, उसकी संस्कृति और उसके मूल्यों के इतने आदी हो चुके होंगे कि हमें अपनी संस्कृति और अपने मूल्य व्यर्थ लगने लगेंगे।
भूमंडलीकरण का सबसे बड़ा खतरा भाषा और संस्कृति पर ही है क्योंकि भूमंडलीकरण का उद्देश्य ही यही है। आज विश्व की बहुत सी भाषायें खतरे में हैं क्योंकि कई सूचना तकनीकें कुछ विशेष भाषाओं का ही चयन करती हैं। वह उन्हीं का चयन करती हैं जिनके माध्यम से वह अपनी विश्व दृष्टि अन्यों पर थोप सके। इस विश्व दृष्टि नीति से अनेक भाषाओं की उपेक्षा हो रही है। उन भाषाओं की जो अपने देश की मातृभाषायें हैं। विशेषतौर पर उनकी उपेक्षा हो रही है, जो अल्पसंख्यकों के द्वारा बोली जाती हैं। भाषायें संस्कृतियों की वाहक होती हैं और एक संस्कृति हजारों साल में निर्मित होने वाले रीति रिवाज रहन सहन, खान-पान, और बोली भाषा का सामूच्य है। इसका खतरे में पड़ना यानि अनुवांशकीय विशेषताओं पर खतरा हेै। क्याेंकि भाषा अपने बोलने वाले लोगों की सांस्कृतिक, स्मृतियों से जुडक़र समृध्द होती चलती है। यह प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी चला करती है। इस तरह एक भाषा के समाप्त होने का अर्थ है- विश्व दृष्टि, विश्व में अपने होने, अपने सृजन अपनी अभिव्यक्ति की समाप्ति।
यह सही है कि विश्व की संस्कृति, उसके ज्ञान और संचार में आज अंग्रेजी अधिक सक्षम है। इसमें कोई संदेह भी नहीं, मगर इसका इस तरह का वर्चस्व अन्य भाषाओं को निगल रहा है। अंग्रेजी आज शिक्षा का, प्रचार प्रसार का एकमात्र माध्यम बनती जा रही है और इसका सीधा प्रभाव अन्य भाषाओं पर पड़ रहा है। यह डर है कि आने वाले समय में यह आक्रमक साम्रायवाद के निर्माण का आधार बनेगी और शेष भाषायें विलुप्त हो जाएंगी। यह चिन्ता का विषय है।
एक विश्वभाषा की अवधारणा के लिए अनुवाद एक महत्वपूर्ण घटक है। क्योंकि भूमंडलीकरण का प्रमुख एजेण्डा आर्थिक साम्रायवाद ही है। बाजार पर एकाधिकार ही इस भूमंडलीकरण का उद्देश्य है। और बाजार पर कब्जा पाने के लिए उस देश की भाषा का सहारा बहुत जरूरी है, जिस देश को उन्हें अपना बाजार बनाना है। इसीलिए आज के विज्ञापनों में हिन्दी का बोलबाला है। हिन्दी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं का भी। आंचलिक चैनलों पर वही हिन्दी वाले विज्ञापन आंचलिक भाषाओं में दिखाये और सुनाये जाते हैं। इनमें अंग्रेजी के शब्दों की भरमार है। ये अभी शुरुआत है। इसलिए हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद की आवश्यकता है। मगर धीरे-धीरे हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाएं इनमें से बहिष्कृत होती चली जाएंगी और अंग्रेजी अपने पूरे वर्चस्व के साथ वहां स्थापित हो जायेगी। तब अनुवाद की आवश्यकता नहीं रह जायेगी। 
दरअसल जब भूमंडलीकरण की अवधारणा सामने आयी थी, तब यह प्रचारित किया गया था कि सभी भाषाओं को मिलाकर एक विश्व भाषा और सभी संस्कृतियों को मिलाकर एक विश्व संस्कृति निर्मित होगी। अगर ऐसा होता तो अनुवाद की उपयोगिता हमेशा बनी रहती। मगर ऐसा नहीं हो रहा है। अनुवाद का लाभ सिर्फ अंग्रेजी को मिल रहा है। विश्व की सूचनाएं सिर्फ अंग्रेजी के माध्यम से ही आ रही हैं। हिन्दी या अन्य भाषाओं के माध्यम से नहीं। इसी तरह अंग्रेजी की सूचनाएं भी अंग्रेजी में आ रही है और उसके अनुवाद की अब हमें उतनी आवश्यकता नहीं रही क्योंकि हमारी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। हमारी सूचना प्राप्ति का माध्यम अंग्रेजी है हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाएं नहीं।
इस तरह धीरे-धीरे अनुवाद की अनिवार्यता समाप्त होती जा रही है। भारत में अंग्रेजी शासन के लिए भारत की बहुभाषिक संस्कृति ही प्रमुख रोड़ा थी। यहां की भाषिक विविधता से डर कर ही मैकाले ने और ऐसी अंग्रेजी शिक्षा की व्यवस्था की थी जिससे भारतीय भाषाएं पनप न सके और परिणामस्वरूप हम लम्बे समय तक अंग्रेजों और अंग्रेजी के गुलाम रहे। आज भी हम भाषिक गुलामी से मुक्त नहीं हो सके हैं।
इस भूमंडलीकरण का एक विश्वभाषा का एजेंडा भी, उसी गुलामी की ओर से जाता है। भाषाएं समाप्त होंगी तो संस्कृतियां भी समाप्त हो जाएंगी और साथ ही हमारी अस्मिता भी। दरअसल अस्मिता तो संस्कृति से ही बनती है। और उसे प्रस्तुत करती है भाषा और भूषा। जब ये दोनों समाप्त हो जायेंगी तो फिर अस्मिता का संकट ही कहां रह जायेगा, और इसकी शुरुआत हो चुकी है। न केवल भाषा से बल्कि खानपान, रहन-सहन,तीज त्यौहार, सभी से।  सब कुछ तो बदल रहा है। एक ग्लोबल विलेज की अवधारणा  रंग ला रही है। विलेज यानि गांव-गांव में तो पारस्परिकता होती है। मगर यह कैसा विलेज है, जहां सबकुछ एकतरफा है? एक ओर भूमंडलीकरण का प्रचार और प्रसार यह कहकर किया जा रहा है कि अब सम्पूर्ण विश्व की संस्कृतियों के श्रेष्ठ तत्वों को मिलकर एक वैश्विक संस्कृति बनेगी। दूसरी ओर वैज्ञानिक अनुसंधान ऐसे तत्वों का प्रकाशन कर रहे हैं, जिनसे हमारी सामुदायिकता की भावना कुंठित हो जाए। कुछ वर्ष पहले यह प्रसारित किया गया था कि ग्रंथालय की पुस्तकें रोगाणुओं से भरी होती हैं। लोग पुस्तकें पढ़ते समय खांसते हैं, छींकते हैं जिनसे बीमारियां फैलती हैं। इसका मतलब तो यह है कि प्रकारांतर से ग्रंथालय जैसे सामुदायिक केन्द्रों का निषेध। यह अनुसंधान और इसके निहितार्थ भयावह हैं और दूर तक जाने वाले हैं। 
हमारी समाज व्यवस्था सामूहिक व्यवस्था है। यहां अधिकांश कार्य समूह में किये जाते हैं, यहां तक कि यात्राएं और तीर्थ यात्राएं भी समूह में की जाती थीं और समूह में हर तरह के लोग होते थे, बच्चे, बूढ़े, जवान, बीमार सबको लेकर चलने की परम्परा रही है। ग्रंथालय भी हमारी सामुदायिकता के केन्द्र रहे हैं। मगर अब सामुदायिकता के स्थान पर निजत्व को प्रचारित किया जा रहा है। समाज से कटकर अलग-थलग रहने का संदेश प्रेषित किया जा रहा है। परिणामत: सामाजिकता के स्थान पर निजता, हमारी जीवन शैली में व्याप्त होने लगी है और यह संस्कृति के क्षरण का पहला कदम है। क्योंकि जब हम किसी से मिलेंगे ही नहीं तो भाषिक सम्पर्क जिसमें संस्कृति प्रवाहित होती है, वह बाधित होगा और धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगा और हम अपनी श्रेष्ठता बोध के चलते उस तथाकथित वैश्विक भाषा और संस्कृति में ढलते चले जाएंगे। और यह होने लगा है। आज हमारा खान-पान बदल गया है पिजा, बर्गर, नूडल्स, कोका-कोला, पेप्सी हमारे खान-पान के अंग बन गए हैं। आज प्यास का मतलब पानी नहीं प्यास मतलब ठंडे पेय हैं। जरा इन ठंडे पेय के विज्ञापनों की भाषा पर गौर किया जाए तो, जिस तरह की भाषा का प्रयोग इनमें हो रहा है, वह चिंताजनक है। 
आज भाषाएं अपना अर्थ खोती जा रही हैं। न्याय, कानून, अधिकार और शपथ जैसे शब्द तो पहले ही अपना अर्थ खो चुके हैं। इन शब्दों से उनके अर्थ छीनकर राजनीति ने इन्हें विकृत किया है। और इस भूमंडलीकरण के जरिए अब भूख और प्यास जैसे शब्दों के मायने बदले जा रहे हैं। भाषा का अर्थ से अर्थान्तर होना संस्कृति को किस तरह बदलता है, किस तरह दूसरी संस्कृति हमारे भीतर प्रवेश करती है, इसका एक ताजा उदाहरण देखिए। भारतीय संस्कृति में मिठाई, खुशहाली का प्रतीक रही है। यहां मिठाई का मतलब लड्डू, पेड़ा, बरफी, जलेबी जैसी भारतीय मिठाईयां रही हैं मगर आज विज्ञापन हमें बताते हैं- मीठा मतलब कैडबरिज। और तीज त्यौहार के मौके पर कैडबरिज के विज्ञापन का असर दिखाई देने लगा हैं। आज के समाज में यह किस तरह व्याप्त हो गया है, इससे हम सभी वाकिफ हैं। आने वाले समय में समाज में ऐसे लोग ही रह जायेंगे, जिनके पास मिठाई का कोई विकल्प ही नहीं होगा। उनके मानस पर सिर्फ कैडबरीज या अन्य चॉकलेट ही होगी। प्यास का अर्थ ठंडा पेय होगा। वैसे भी आज मिनरल वाटर के नाम पर बिकने वाले तथाकथित शुध्द पानी और ठंडे पेय की कीमतों में कुछ खास फर्क नहीं रह गया है। तो फिर ठंडे पेय ही क्यों न पीये जायें? यह सोच हमारे समाज में विस्तार पा रही है। और यह लगातार विस्तृत होती चली जायेगी। अन्तत: हम पानी को अपनी जीवन शैली से निष्कासित कर देंगे। जैसा कि पाश्चात्य देशों ने किया है।
यह भाषिक भ्रंश का दौर है। और भाषा का भ्रंश अंतत: सामाजिक और मानवीय मूल्यों का भ्रंश है। यह सामाजिक विश्रृंखलता का पहला और अंतिम चरण है। भाषा के भ्रष्ट होने की परिणति आज राजनैतिक और सामाजिक जीवन में भी लक्षित की जा सकती है। अध्यात्म और नैतिकता की सुदीर्घ परंपरा का यह देश आज भ्रष्टाचारी देशों की पंक्ति में खड़ा है।
इस तरह वर्चस्वशाली संस्कृति की समस्त गतिविधियों का सीधा संबंध अर्थसत्ता के जरिए जोड़ तोड़ करना ही है। जिससे लोगों के जीवन और उनकी इच्छाओं को वह स्वरूप दिया जा सके, जो प्रभुत्वशाली समूहों के हित में हो। यह नीति प्रत्यक्ष नहीं अप्रत्यक्ष रूप से कार्य करती है। और देशों की, व्यक्ति की भाषिक स्वायत्तता और विविधता को नष्ट करने वाली सांस्कृतिक सहमति का निर्माण करती है। संस्कृति आज उद्योग का रूप ले चुकी है। आज संस्कृति का भी बाजार है। साहित्य, संगीत और कलाओं के साथ-साथ जन संचार के माध्यम भी इस बाजार व्यवस्था में शामिल हैं। सांस्कृतिक संगठनों में सत्ता का इस्तेमाल अप्रत्यक्ष और सूक्ष्म होता है। संचार नेटवर्क के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। यहाँ खबर की हकीकत दिखाना प्राथमिकता भले ही न हो, किन्तु यही संप्रेषित किया जाता है। जनता के लिये वह हकीकत बना ली जाती है, जिसमें सत्ता का निहितार्थ छिपा होता है। और एक समय बाद पाठक दर्शक या श्रोता उसे उसी रूप में ग्रहण करने का आदी हो जाता है, जिस रूप में उसे संप्रेषित करने की कोशिश की जाती है।
एक कहावत है कि बड़ी मछली, छोटी मछली को निगल जाती है। इस भूमंडलीकरण में यही कहावत चरितार्थ हो रही है। समाज शास्त्रियों का मानना है कि आज के समय में प्रतिदिन एक भाषा या बोली विलुप्त हो रही है। इस तरह तो एक दिन ऐसा आयेगा, जब विश्व में केवल वही भाषायें रह जायेंगी जिनका प्रयोग वर्चस्वशाली देश कर रहे हैं। इसी तरह से उन्हीं की संस्कृति भी बची रहेगी, शेष संस्कृतियां भी समाप्त हो जायेगीं। क्योंकि यदि किसी भाषा का वर्चस्व बढ़ता है, तो उसकी संस्कृति भी शक्तिशाली हो उठती है। और भाषाओं को वर्चस्व और संस्कृतियों को वह शक्ति तभी मिलती है, जब वह अन्य भाषाओं और संस्कृतियों को अपने में आत्मसात कर लेती है।
भूमंडलीकरण एक ऐसे ही विश्व की कल्पना करता है। जिसमें शक्तिशाली लोग, उनकी भाषा और संस्कृति वर्चस्व पाती चली जायेंगी। स्पष्ट है कि अन्य भाषायें और उनकी संस्कृतियां विलुप्त हो जायेंगी तब उन देशों का क्या होगा, जिनकी अपनी समृध्द संस्कृति और भाषिक विरासत है। उनकी पहचान, उनकी ताकत और उनकी पूंजी तो उनकी संस्कृति ही है और जब यही नष्ट हो जायेगी तब?
इसीलिये आज जरूरत है कि अपनी भाषा और अपनी संस्कृति को नष्ट होने से बचाया जाय। ऐसे उपाय किए जायें जिससे भूमंडलीकरण की इस ऑंधी में भी हम अपनी पहचान बनाये रख सकें। यह तो तय है कि अब पीछे लौटना संभव नहीं है। मगर जो स्थितियाँ है, उन्हीं में से कोई राह निकाली जानी चाहिये। जिससे हमारी अस्मिता बरकरार रह सके।
इसके लिये हमें अपने भीतर अस्मिता बोध जागृत करना होगा और यह अस्मिता बोध प्रत्येक समुदाय में भी जगाना होगा। यह काम उस समुदाय का व्यक्ति ही कर पायेगा। हमें अपनी भाषा और संस्कृति को व्यवहार में लाना होगा। हमें यह समझना होगा कि आवश्यकता के लिये तो अंग्रेजी का व्यवहार करना उचित है। मगर घर की भाषा हमारी अपनी भाषा हो। हम वैश्विक संस्कृति को नकारे नहीं, मगर अपनी संस्कृति का भी सम्मान करें। उसे व्यवहार में लाकर इसे संरक्षित करें। हमें अपनी भाषा और संसकृति पर गर्व करना सीखना होगा। जब हम यह कर लेंगे, तभी भूमंडलीकरण की इस ऑंधी में स्थिर रह पायेंगे और हमारी भाषायें बची रह पायेंगी। और जब भाषायें बची रहेंगी तो संस्कृति भी प्रवहमान होती रहेगी। और भाषाओं की समृध्दि के लिये अनुवाद की अनिवार्यता भी बरकरार रहेगी।
ए-21, स्टील सिटी
अवन्ती विहार, रायपुर (छ.ग.)


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